ज़िंदगी वक्त है
रेत सी फिसल गई है
ता-उम्र कोशिश की संभाल कर रखने की
फ़िर भी हथेलीयों से निकल सी गई है
वो बचपन याद आता है
जब मुठ्ठी बन्द कर आसमां काबू कर लेते थे
रात की रोशनी में अजब सा अम्न-ओ-सुकून था
चाँद तारों संग ताल्लुक़ थे
ज़िंदगी वक्त है
रेत सी फिसल गई है …
ज़िंदगी नदी है
बे-फ़िक्र बहती चली गई है
जितनी कोशिश की थामने की
उतनी ही ज्यादा उफनती सी गई है
मोहब्बत के अफसाने, यारों संग मेहफ़िलें थीं
पलकों तले ख़्वाब संजोऐ थे, अनगिनत चाहतें थीं
ज़िंदगी नदी है
बे-फ़िक्र बहती चली गई है …
ज़िंदगी धूँआ है
हवा संग किसी नादान परिन्दे सी उड़ गई है
उड़ते उड़ते मुझसे ये
कुछ सवाल पूछ गई है
सवाल कुछ ऐसे
जिनके ज़वाब शायद खुद जानना नही चाहता
ज़वाब कुछ ऐसे
जो ज़ेहन में तो हैं पर मानना नही चाहता
ज़िंदगी धूँआ है
हवा संग किसी नादान परिन्दे सी उड़ गई है …
ज़िंदगी किताब है
आवारा पन्नों की तरह बिख़र गई है
बिख़रते हुए यूँ
ख़्वाहिशों का सफ़्हा हर्फ़-दर-हर्फ़ मिटा गई है
बस बिख़रते हुए इसे यूँ मैं देख रहा हूँ
फ़िर से नये सिरे से किताब संजोना चाहता हूँ
पर कुछ पन्ने खो गये हैं
कुछ हद से परे फट गये हैं
ज़िंदगी किताब है
आवारा पन्नों की तरह बिख़र गई है …
वक्त का खेल देखिए ज़नाब
आज ख़ुद से ज़ुदा सा महसूस करता हूँ
एक अन-जानी सी तलब है
सिफ़र को पाने का ज़रिया तलाशता हूँ
मेरी ये तन्हाई मुझे
ख़ुदसे ख़फा होने का एहसास करवाती गई है
ज़िंदगी वक्त है
रेत सी फिसल गई है ।।।
ज़िंदगी वक्त है
और लम्हा-दर-लम्हा गुज़रती सी जा रही है …